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हिमालयी तबाही का सच: विकास के नाम पर विनाश और एक आयोग की ज़रूरत

The truth of the Himalayan disaster: Destruction in the name of development and the need for a commission

भूमिका
2025 की बारिश ने एक बार फिर हिमाचल प्रदेश और पूरे हिमालयी क्षेत्र को घुटनों पर ला दिया है। भूस्खलन, बाढ़, पुलों और सड़कों का बह जाना, गांवों का उजड़ जाना – ये कोई एक बार की आपदा नहीं, बल्कि एक लंबे समय से चल रहे विकास मॉडल की असफलता का परिणाम है। यह वही मॉडल है जिसे केंद्र सरकार की एजेंसियों ने बढ़ावा दिया, बड़े कॉरपोरेट निवेशकों ने पोषित किया और जिसे राज्य सरकारों ने राजस्व की लालसा में आंख मूंदकर अपनाया।

इस लेख में हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि कैसे तथाकथित विकास की आड़ में हिमालय को विनाश की ओर धकेला गया है, और क्यों अब समय आ गया है कि एक स्वतंत्र जांच आयोग का गठन हो, ताकि न सिर्फ जवाबदेही तय की जा सके, बल्कि भविष्य के लिए एक स्थायी विकास मॉडल की नींव रखी जा सके।


हिमालय में तबाही की श्रृंखला: यह कोई नई बात नहीं है

हिमाचल में एक पुरानी कहावत है: “नई बात नौ दिन”, यानि किसी भी चिंता या समस्या की उम्र बस कुछ ही दिनों की होती है। लेकिन आज के मीडिया युग में तो नौ घंटे भी बहुत हैं। दुखद ये है कि इस अल्पकालिक स्मृति के चलते सरकारें और संस्थाएं गंभीर आपदाओं से कोई ठोस सबक नहीं लेतीं।

2025 की त्रासदी महज़ एक ‘आपदा’ नहीं, बल्कि उस लापरवाह विकास नीति का परिणाम है, जो पारिस्थितिकी तंत्र की संवेदनशीलता को नजरअंदाज कर सड़कों, सुरंगों और बांधों का निर्माण करती आई है। चाहे वह 2023 की बर्बादी हो, 2021 के बादल फटने की घटनाएं हों या 2013 की उत्तराखंड आपदा — हर आपदा ने एक ही बात कही है: हिमालय सहन नहीं कर सकता इस तरह का विकास


एनएचएआई की सड़कें: कनेक्टिविटी के नाम पर मौत के गलियारे

राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) द्वारा किए जा रहे सड़क विस्तार कार्यों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी स्पष्ट है।
परवाणू-सोलन फोर-लेन परियोजना ने पहले ही अनेक भूस्खलनों को जन्म दिया। ढलानों की बिना सोचे-समझे सीधी कटाई से मिट्टी कमजोर हो गई, जिससे गांवों पर निरंतर खतरा मंडराने लगा।

अब कैथलीघाट-ढल्ली खंड पर भी वही तरीका अपनाया जा रहा है – बिना भूवैज्ञानिक परीक्षण, बिना ढलान को मजबूत किए, सीधे चट्टानों को काटकर राजमार्ग बनाए जा रहे हैं। नतीजा? ये सड़कें अब ‘प्रगति’ की नहीं, बल्कि प्राकृतिक आपदा के प्रवेशद्वार बन चुकी हैं।


बेस नदी का उफान और मंडी का डूबना: योजनाकारों की विफलता

मंडी शहर, जो कभी अपेक्षाकृत सुरक्षित घाटी में स्थित था, इस साल बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुआ।
नदी किनारे जो कभी प्राकृतिक बफर ज़ोन थे, वहां अब दुकानें, मकान और सरकारी भवन बन गए हैं। बेस नदी ने जब अपना पुराना रास्ता याद किया, तो उसने सब कुछ अपने साथ बहा लिया।

यह सिर्फ बारिश की वजह से नहीं हुआ, बल्कि नदी तटों पर अवैध निर्माण और शहरी योजनाकारों की लापरवाही का नतीजा था। सरकारें ऐसी योजनाओं को ‘विकास’ कहती हैं, लेकिन नदियों को याद रहता है कि उनका रास्ता कहां था — और जब वे उसे पुनः खोजती हैं, तो तबाही तय होती है।


बांधों का दुष्परिणाम: ऊर्जा के नाम पर विनाश

90 के दशक में भारत के उदारीकरण के बाद हिमालयी राज्यों को राजस्व के लिए हाइड्रोपावर का सहारा लेने को कहा गया।
किन्नौर, लाहौल-स्पीति, चंबा, कुल्लू – हर जिले में दर्जनों बांध बनाए गए। नतीजा यह हुआ कि:

  • नदियों में जमा की गई मिट्टी और मलबा चैनलों को संकीर्ण करता गया,
  • बारिश के समय यह मलबा मौत का हथियार बन गया,
  • स्थानीय समुदायों का विस्थापन हुआ,
  • और यह मॉडल न स्थायी ऊर्जा दे सका, न स्थायी रोजगार

यह समझने की ज़रूरत है कि हिमालय कोई स्थिर पर्वत नहीं, एक जीवित भूगर्भीय क्षेत्र है। यहां कोई भी बेमेल निर्माण एक ‘टाइम बम’ जैसा है।


राज्य-केंद्र संबंधों में बदलाव: परमार मॉडल से कॉरपोरेट मॉडल तक

हिमाचल कभी वाई.एस. परमार जैसे नेताओं के नेतृत्व में एक जन-केंद्रित विकास मॉडल के लिए जाना जाता था।
लेकिन 1990 के बाद, केंद्र सरकारों ने राज्यों पर राजस्व के लिए प्राकृतिक संसाधनों की बिक्री का दबाव बढ़ा दिया। परिणामस्वरूप:

  • नदियां बेच दी गईं,
  • जंगल कॉरपोरेट्स को दे दिए गए,
  • और ‘टूरिज्म’ के नाम पर पर्वतीय स्थलों को कंक्रीट जंगल बना दिया गया।

यह ‘विकास’ नहीं, बल्कि हिमालय का बाजारीकरण था।


केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी और संघीय ढांचे की विफलता

केंद्र सरकार की नीतियों ने हिमालयी राज्यों को इस स्थिति में ला खड़ा किया है।
NHAI, पावर कॉरपोरेशन्स, और केंद्रीय वित्त नीतियां — सभी ने मिलकर हिमाचल को एक ऐसी दिशा में ढकेला, जहां राजस्व के नाम पर विनाश को आमंत्रण दिया गया।

जब कोई राज्य अपनी सीमाओं में होने वाले निर्माण पर भी रोक नहीं लगा सकता, जब भूगर्भीय रिपोर्टों को नज़रअंदाज़ किया जाता है, और जब राज्य को केंद्र से मिल रही वित्तीय मदद अपर्याप्त हो — तो इसे संघवाद नहीं, वित्तीय जबरदस्ती (Fiscal Coercion) कहते हैं।


अब क्यों ज़रूरी है एक जांच आयोग?

2023 की मानसूनी तबाही में ही 14,000 करोड़ से ज़्यादा का नुकसान हुआ।
क्या किसी एजेंसी ने ज़िम्मेदारी ली?

  • किसके आदेश पर ढलानों पर मकान बने?
  • कौन सी एजेंसी ने नदी में मलबा फेंकने की अनुमति दी?
  • किन अधिकारियों ने भूगर्भीय चेतावनियों को दरकिनार किया?

अब समय आ गया है कि एक स्वतंत्र आयोग — जिसकी अध्यक्षता preferably सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश करें — का गठन किया जाए।


यह आयोग सिर्फ पोस्टमार्टम न करे — एक वैकल्पिक सोच को जन्म दे

  • यह आयोग लोगों की भागीदारी से संचालित हो,
  • स्थानीय पर्यावरण विशेषज्ञों, भूवैज्ञानिकों और प्रभावित समुदायों को सुना जाए,
  • एक वैकल्पिक हिमालयी विकास नीति की रूपरेखा बने — जो नदी, जंगल और इंसान के बीच संतुलन बनाए।

यह आयोग राजनीतिक जवाबदेही से लेकर परियोजना स्वीकृति प्रक्रियाओं तक की जांच करे, और यह स्पष्ट करे कि हिमालय कोई औद्योगिक बेल्ट नहीं, बल्कि भारत का पारिस्थितिक रीढ़ है।


निष्कर्ष: हिमालय को पुनः सोचने की ज़रूरत है

हमारे सामने आज जो चुनौती है, वह सिर्फ आपदा प्रबंधन की नहीं, बल्कि विकास के मूल दर्शन की है
क्योंकि यदि हम अब भी नहीं चेते, तो हर साल हिमालयी राज्यों में यही कहानी दोहराई जाएगी — बाढ़, भूस्खलन, विस्थापन और लाशें।

इसलिए अब जवाबदेही तय करना, जन भागीदारी से नीति बनाना, और लाभ के स्थान पर जीवन को प्राथमिकता देना अनिवार्य है। एक स्वतंत्र आयोग इस दिशा में पहला और आवश्यक कदम हो सकता है।


क्योंकि जब तक हम हिमालय को ‘संवेदनशील क्षेत्र’ की तरह नहीं, बल्कि ‘कमाई के साधन’ की तरह देखते रहेंगे, तब तक विकास के नाम पर विनाश जारी रहेगा।

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