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बिहार में वोटर लिस्ट के नए नियमों पर सियासी बवाल: EC की नागरिकता जांच से विपक्ष और दलित-पिछड़ा वर्ग में गहराई चिंता

Political uproar over new rules of voter list in Bihar: EC's citizenship test has caused deep concern among opposition and Dalit-backward classes

भारत निर्वाचन आयोग (EC) द्वारा बिहार में युद्धस्तर पर चल रही “विशेष गहन संशोधन” (Special Intensive Revision – SIR) ने सियासी माहौल तापमान तक पहुंचा दिया है। चुनाव से जुड़े आठ करोड़ मतदाताओं में से लगभग तीन करोड़ को – जो 2003 के बाद पंजीकृत हैं – को अब नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज़ जमा करने होंगे। इस कदम ने विपक्षी INDIA ब्लॉक में नाराज़गी के साथ-साथ राज्य की सत्तारूढ़ NDA में भी चिंता पैदा कर दी है। वहीं, दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों में भय कि उनके वोट रद्द हो सकते हैं।


उर्दू प्रेस की रिपोर्ट: राज्य के आम लोगों पर अनावश्यक बोझ

  • रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा की 28 जून की संपादकीय बेटियाँ लिखती हैं कि EC की यह पहल “अकल्पनीय” है, क्योंकि इसमें प्रत्येक मतदाता को पूरे जाति-नागरिकता दस्तावेजों की मांग की गई है। इससे गरीब और कामकाजी वर्ग पर भारी बोझ पड़ेगा।
  • संपादकीय कहती है कि रजिस्ट्रेशन ऑफ़ 2003 के बाद के मतदाताओं को न केवल आत्म घोषणा (सेल्फ डिक्लेरेशन) देनी होगी, बल्कि जन्म प्रमाणपत्र, माता-पिता के दस्तावेज, और अन्य कागजात भी दिखाने होंगे—जो दैनिक जीवन संघर्ष के बीच मुश्किल हो सकते हैं।

विपक्ष और INDIA ब्लॉक की प्रतिक्रिया

  • INDIA ब्लॉक, जिसमें RJD, कांग्रेस, CPI(M), CPI(ML)-Liberation, SP, BSP और अन्य शामिल हैं, ने ये कदम “चुनाव से पहले वोटबंदी (Votebandi)” करार दी है।
  • तेजस्वी यादव, राहुल गांधी, अभिषेक मनु सिंहवी समेत कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने इसे ध्रुवीकरण की कोशिश बताया और चेताया कि दो करोड़ से ज्यादा गरीब मतदाता वोट डालने से वंचित हो सकते हैं
  • दिग्विजय सिंह ने इस प्रक्रिया को “अनुचित” और “राजनीतिक प्रेरित” बताया। वहीं दिपंकर भट्टाचार्य (CPI-ML) ने इसे “संवैधानिक विरुद्ध” करार दिया।

EC की दलील और LEGAL बेस

  • EC का कहना है कि यह कदम संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत लिया गया है, जिसके तहत केवल योग्य नागरिक ही वोट डाल सकते हैं।
  • EC ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में स्पष्ट किया है कि जो लोग 2003 की सूची में शामिल हैं, उन्हें मान लिया जाएगा कि वे नागरिक हैं; इसके बाद पंजीकृत मतदाताओं को नई फॉर्म और दस्तावेज़ जमा करने होंगे।
  • इस प्रक्रिया में 98,450 बूथ स्तर अधिकारी (BLO) 243 विधानसभा क्षेत्रों में घर-घर जाकर दस्तावेज़ वेरिफाई करेंगे।

समुदाय विशेष की चिंताएं

  • दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्ग (दलित, आदिवासी, मुस्लिम) को डर है कि दस्तावेजों की कमी के कारण उनका वोट रद्द हो सकता है।
  • गत सांप्रदायिक घटनाओं और जातिगत असमानता को ध्यान में रखते हुए, इन समुदायों का कहना है कि वे सांविधानिक अधिकारों से वंचित किए जा सकते हैं ।

समयसीमा: सुरक्षात्मक बनाम असंभव?

  • प्रक्रिया 25 जून से शुरू होकर 26 जुलाई तक होगी, फिर 1 अगस्त को प्रारंभिक सूची, और 30 सितंबर को अंतिम घोषणा होगी ।
  • विपक्ष ने कहा कि बरसातों के बीच, सीजनल प्रवासियों, मजदूरों, और माइग्रेंट श्रमिकों के लिए यह असंभव है कि वे इतने कम समय में दस्तावेज़ जुटा सकें ।

क्या यह NRC का कमाल है?

  • एक व्यापक आलोचना यह भी है कि यह कदम “बैकडोर NRC” यानी असम-शैली की सत्यापन प्रक्रिया की तरह है , जिससे गैर-कानूनी प्रवासियों को पहचानने और भारत से बाहर करने की शुरुआत हो रही है।
  • विपक्ष और नागरिक अधिकार संगठन भी इसे NRC जैसे सांप्रदायिक और विभाजनकारी कदम मान रहे हैं।

NDA और राज्य सरकार की चुप्पी

  • जदयू और Nitish Kumar दोनों ने अभी तक इस फैसले पर कोई खुली प्रतिक्रिया नहीं दी है।
  • राज्य के ही एक NDA सहयोगी JMM ने EC के इस जोरदार कदम पर आपत्ति जताई है कि यह मताधिकार के अधिकार का उल्लंघन करता है।

EC का रुख: चुनाव से पहले सांसद-मेहनतकश सूची सुधारना है जरूरी

  • EC का कहना है कि यह कदम जनगणना और शहरों में प्रवास, वोटर डेटा की गलतियाँ और मृत्यु/माईग्रेशन की समस्याओं को दूर करने के लिए ज़रूरी है ।
  • पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी ने भी कहा है कि यह प्रक्रिया लोकतांत्रिक सुरक्षा के लिए जरूरी है और इससे वोटर लिस्ट ठीक होगी ।

नतीजा: बिहार और आगे

  • बिहार में यह विवाद विधानसभा चुनाव के राजनीतिक गढ़ के रूप में आगे बड़ी बहस का हिस्सा बनेगा। इससे RJD-कांग्रेस-INDIA ब्लॉक की रणनीति प्रभावित हो सकती है।
  • आगामी पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में भी इसी प्रेसर को लागू करने का बहाना देखा जा सकता है जिस पर विपक्ष पहले से ही चिंतित है ।

निष्कर्ष

EC का यह कदम—जो नागरिकता के दस्तावेज़ की मांग करता है—वोटर वैधता की रक्षा के नाम पर उठाया गया है, मगर विपक्ष, समुदाय विशेष और विदेशी पर्यवेक्षकों को यह गंभीर लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन लग रहा है। इससे स्पष्ट है कि दस्तावेज़ीकरण का आग्रह बहुत संवेदनशील विषय बन चुका है, जो न केवल मतदाता-डिबेट को, बल्कि भारत के चुनावी और सामाजिक ताने-बाने को भी चुनौती देता है।

अब देखना ये है कि क्या EC जमा किए गए दस्तावेज़ों की पारदर्शिता सुनिश्चित कर पाएगी, क्या दस्तावेज़ी कईलिये समावेशी नियम बनाए, और लोकतंत्र के इन्वाइटेड मतदाताओं को बाहर न रखे – या फिर यह कदम एक बड़े विभाजन की शुरुआत साबित हो जाएगा।

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