भूमिका: एक और हादसा, एक और चूक
9 जुलाई की सुबह गुजरात के वडोदरा और आणंद जिलों को जोड़ने वाला गम्भीरा पुल जब भरभराकर महिसागर नदी में गिरा, तो यह केवल एक ढांचा नहीं टूटा – यह प्रशासनिक लापरवाही, भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता की नींव पर खड़े ‘गुजरात मॉडल’ की असलियत भी उजागर कर गया।
हादसे में अब तक आठ लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है। दर्जनों घायल हैं, और कई लोगों को अब भी ढूंढने का काम जारी है। लेकिन यह हादसा आकस्मिक नहीं था। यह वो त्रासदी थी, जिसकी आशंका पहले से जताई जा रही थी।
चश्मदीद की कहानी: “हमने नाव मोड़ी और बचाव में लग गए”
मछुआरे नरेंद्र माली, जो हर सुबह की तरह इस दिन भी महिसागर नदी में मछली पकड़ रहे थे, उस वक्त वहीं मौजूद थे। अचानक जब उन्होंने पुल से तेज़ आवाज़ें सुनीं, तो उन्होंने ऊपर देखा और एक दिल दहला देने वाला दृश्य सामने था — पुल का एक हिस्सा टूट चुका था और उस पर से वाहन सीधे नदी में गिर रहे थे।
“गाड़ियाँ एक के बाद एक नीचे गिर रही थीं। जैसे ही ये देखा, हम अपनी नावें उन गाड़ियों की ओर मोड़कर बचाव में लग गए,” माली ने बताया।
उन्होंने कहा कि दो ट्रक, एक कार, एक पिकअप वैन और कुछ बाइकें पुल से नीचे गिरीं।
“बहुत से लोगों को बचाया नहीं जा सका,” उन्होंने अफसोस के साथ कहा।
मृतकों की पहचान और सरकारी आंकड़े
अब तक आठ लोगों की मृत्यु की पुष्टि हो चुकी है। इनमें से छह की पहचान हो गई है:
- वैदिक पडियार (45)
- नैतिक पडियार (45)
- हसमुख परमार (32)
- रमेश पडियार (32)
- वखासिंह जाधव (26)
- प्रवीण जाधव (26)
बाकी दो शवों की पहचान प्रक्रिया जारी है। पुलिस और आपदा प्रबंधन की टीमें घटनास्थल पर राहत और बचाव कार्य में जुटी हैं। नदी की धारा तेज़ होने और गाद जमा होने के कारण ऑपरेशन कठिन हो गया है।
गम्भीरा पुल: इतिहास और उपेक्षा की कहानी
1985 में बने इस पुल की आयु 40 वर्ष हो चुकी थी। तकनीकी मानकों के अनुसार इस तरह के संरचनात्मक ढांचे की नियमित जांच और मेंटेनेंस अनिवार्य होती है, लेकिन यह पुल वर्षों से उपेक्षित रहा।
स्थानीय बीजेपी विधायक चैतन्यसिंह जाला ने इस पुल की खस्ताहाली को देखते हुए एक नए पुल के निर्माण की सिफारिश की थी, जिसे राज्य सरकार ने मंजूरी भी दे दी थी। सर्वे भी हो चुका था और योजनाएं कागज़ों पर बन रही थीं, लेकिन गम्भीरा पुल को बंद नहीं किया गया।
स्थानीय लोगों ने कई बार पुल की हालत को लेकर प्रशासन को चेताया था। उनका कहना है कि जब भी भारी वाहन पुल से गुजरते, पूरा ढांचा हिलता था। बावजूद इसके, सरकार ने इसे खुला रखा।
प्रशासन की प्राथमिकता: लाशें निकालो, ट्रैफिक डायवर्ट करो
वडोदरा के कलेक्टर अनिल धमेलिया ने मीडिया से बात करते हुए कहा,
“हमारी प्राथमिकता घायलों को बचाना और शवों को निकालना है। गाड़ियाँ बाद में निकाली जाएंगी। ट्रैफिक को पहले ही डायवर्ट कर दिया गया है।”
लेकिन सवाल उठता है:
- क्या यही प्राथमिकता पहले नहीं होनी चाहिए थी?
- क्या पुल की हालत पर चेतावनियों को गंभीरता से लेकर यातायात को पहले से डायवर्ट नहीं किया जा सकता था?
प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की संवेदना
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हादसे पर दुख जताते हुए कहा कि यह “गहरा दुखद” है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने घोषणा की:
- प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष (PMNRF) से मृतकों के परिजनों को ₹2 लाख
- घायलों को ₹50,000 की सहायता
गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने भी घटना को “अत्यंत दुखद” बताते हुए कहा कि:
- राज्य सरकार मृतकों के परिवारों को ₹4 लाख की सहायता देगी
- घायलों को ₹50,000 की आर्थिक सहायता और मुफ्त इलाज की व्यवस्था
हालांकि संवेदना ज़रूरी है, लेकिन यह सवाल भी उठता है – अगर सरकार समय रहते सतर्क होती, तो शायद ये सहायता की नौबत ही नहीं आती।
विपक्ष का हमला: “यही है गुजरात मॉडल की सच्चाई”
इस हादसे ने गुजरात मॉडल की चमकदार छवि पर सवाल खड़े कर दिए हैं। कांग्रेस पार्टी ने सरकार पर तीखा हमला बोलते हुए कहा:
“यह हादसा गुजरात मॉडल की भ्रष्ट और सड़ी हुई नींव का परिचायक है।”
विधायक अमित चावड़ा ने आरोप लगाया कि विपक्ष लगातार पुल की खराब स्थिति को लेकर सरकार को आगाह करता रहा, लेकिन कोई कदम नहीं उठाया गया।
“राज्य में कई पुराने और जर्जर पुल हैं, लेकिन सरकार आँख मूंदे बैठी है,” उन्होंने कहा।
कांग्रेस ने यह भी कहा कि यह हादसा किसी प्राकृतिक आपदा का नहीं, बल्कि ‘नीति की आपदा’ (Policy Disaster) का परिणाम है।
ढाँचागत भ्रष्टाचार और सार्वजनिक जीवन की कीमत
गुजरात में हाल के वर्षों में ढाँचागत विकास के नाम पर भारी निवेश हुआ है – स्मार्ट सिटी, एक्सप्रेसवे, रिवरफ्रंट, और बुलेट ट्रेन जैसे बड़े प्रोजेक्ट्स को प्राथमिकता दी जा रही है। लेकिन यह सवाल अनुत्तरित है कि छोटे और ज़रूरी ढाँचों – जैसे गाँवों और ज़िलों को जोड़ने वाले पुलों – की देखरेख में सरकार क्यों विफल हो रही है?
गम्भीरा पुल हादसे ने यह सवाल सीधे-सीधे सामने रख दिया है – क्या हम विकास की रफ़्तार के पीछे ज़मीनी सुरक्षा को भूल रहे हैं?
स्थानीय नागरिकों की नाराज़गी और गुस्सा
मैसूरा गांव की एक स्थानीय महिला, रेखाबेन, ने कहा:
“हमारे बच्चों को स्कूल जाना होता है। रोज़ इस पुल से गुजरते हैं। हमने कितनी बार सरकार से शिकायत की, लेकिन कोई नहीं आया देखने।”
एक दुकानदार ने कहा:
“हर ट्रक के गुजरने पर पुल हिलता था। सबको पता था कि एक दिन गिर जाएगा। लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया। अब लाशें निकाल रहे हैं।”
सिस्टम की विफलता: सबको पता था, लेकिन किसी ने रोका नहीं
- सरकार को पुल की हालत पता थी
- स्थानीय विधायक ने नया पुल बनवाने की सिफारिश की थी
- सर्वे हो चुका था
- स्थानीय जनता ने कई बार चेताया था
इसके बावजूद, पुल खुला रखा गया और भारी वाहनों को इसकी छाती पर दौड़ाया जाता रहा – जब तक यह पुल मौत का पुल नहीं बन गया।
आगे की राह: क्या यह हादसा सबक बनेगा?
गम्भीरा पुल हादसा हमें कई सवालों के साथ छोड़ता है:
- क्या राज्य सरकार अब सभी पुराने पुलों की समयबद्ध और सार्वजनिक ऑडिट कराएगी?
- क्या ज़िम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई होगी?
- क्या मृतकों की क्षतिपूर्ति से ज़्यादा सरकार भविष्य की सुरक्षा योजनाओं पर ध्यान देगी?
- क्या हम ‘विकास’ को सिर्फ़ फ्लाईओवर और मेगा प्रोजेक्ट्स तक सीमित रखेंगे, या ज़मीनी हकीकतों पर भी ध्यान देंगे?
निष्कर्ष:
गम्भीरा पुल का गिरना सिर्फ़ एक हादसा नहीं था – यह पूरे तंत्र की असफलता का प्रतिबिंब है। यह हादसा बता गया कि जब चेतावनियों को अनदेखा किया जाता है, जब ज़िम्मेदारी को सिर्फ़ प्रेस कॉन्फ्रेंस तक सीमित रखा जाता है, और जब जीवन की कीमत सिर्फ़ मुआवज़े में आँकी जाती है – तब पुल नहीं, भरोसा टूटता है।
यह हादसा भारत की नीतिगत प्राथमिकताओं को पुनः परखने का मौक़ा है – क्या हमारे लिए एक सामान्य आदमी की जान की कीमत सिर्फ़ 4 लाख रुपये है? या उससे कहीं ज़्यादा?
यह समय है कि हम ‘गुजरात मॉडल’ के पीछे की दरारों को समझें – और समय रहते उन्हें भरें, इससे पहले कि अगला पुल, अगली ट्रेन, अगली सड़क फिर एक जानलेवा खबर बन जाए।
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