तमिलनाडु बनाम केंद्र सरकार: शिक्षा, भाषा और सशक्तिकरण की विचारधारा टकराई
भूमिका: एक बयान और छिड़ी नई बहस
हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में दिया गया बयान – “हमारे जीवनकाल में वह दिन आएगा जब अंग्रेज़ी बोलने वालों को शर्म आएगी” – देश की भाषा नीति को लेकर एक बार फिर से गरम बहस का विषय बन गया है। इस बयान ने न केवल शिक्षा और संस्कृति से जुड़े सवाल खड़े कर दिए हैं, बल्कि राजनीति और सामाजिक समानता से जुड़ी बहसों को भी हवा दी है।
इस टिप्पणी के जवाब में तमिलनाडु के शिक्षा मंत्री अंबिल महेश पोय्यामोझी ने तीखी प्रतिक्रिया दी है और इसे दलितों, पिछड़ों और वंचित वर्गों को सशक्तिकरण से दूर रखने का प्रयास बताया है। उनका मानना है कि अंग्रेज़ी अब सिर्फ एक भाषा नहीं बल्कि वैश्विक अवसरों की कुंजी बन चुकी है।
डीएमके का तर्क: अंग्रेज़ी अब औपनिवेशिक भाषा नहीं, अवसर की भाषा है
अंबिल महेश पोय्यामोझी ने एक्स (पूर्व ट्विटर) पर लिखा:
“अंग्रेजी अब औपनिवेशिक अवशेष नहीं है – यह प्रगति का एक वैश्विक साधन है। चीन, जापान, कोरिया, इज़राइल और जर्मनी जैसे देश इसे विदेशी प्रभाव के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान, तकनीक और व्यापार में नेतृत्व करने के लिए अपनाते हैं।”
उन्होंने यह भी जोड़ा कि डीएमके की विचारधारा मातृभाषा तमिल के साथ-साथ अंग्रेज़ी को भी प्राथमिकता देती है – ताकि हर बच्चा न केवल अपनी जड़ों से जुड़ा रहे बल्कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा में बराबरी से भाग ले सके।
“भाषा नहीं, सत्ता का नियंत्रण है मुद्दा”
पोय्यामोझी ने सीधे तौर पर अमित शाह और आरएसएस पर निशाना साधते हुए कहा:
“यह अंग्रेज़ी की नहीं, सत्ता के नियंत्रण की लड़ाई है। जैसे संस्कृत को अभिजात्य वर्ग तक सीमित रखा गया था, वैसा ही अब अंग्रेज़ी के साथ किया जा रहा है – ताकि गरीब, दलित और पिछड़े समुदाय शिक्षा और अवसरों से दूर रहें।”
उनका यह आरोप भारतीय समाज की उस गहरी संरचना को उजागर करता है जिसमें भाषा, जाति और शिक्षा का परस्पर संबंध रहा है। डीएमके का कहना है कि भाजपा और आरएसएस अंग्रेज़ी को सांस्कृतिक खतरे के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक बराबरी के माध्यम के रूप में देखती हैं – और इसी से उन्हें परेशानी है।
एनईपी और तीन-भाषा नीति: तमिलनाडु की असहमति
यह विवाद केवल बयानबाज़ी तक सीमित नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में केंद्र सरकार द्वारा लाई गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के तहत तीन-भाषा फॉर्मूला तमिलनाडु और केंद्र के बीच टकराव का बड़ा कारण बना है।
डीएमके का कहना है कि यह नीति हिंदी को धीरे-धीरे थोपने का “पिछले दरवाजे से प्रयास” है, खासकर तमिलनाडु जैसे गैर-हिंदी भाषी राज्यों में। तमिलनाडु ने ऐतिहासिक रूप से दो-भाषा नीति (तमिल और अंग्रेज़ी) अपनाई है, और राज्य में हिंदी विरोधी आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है।
केंद्रीय विद्यालयों में तमिल की स्थिति पर सवाल
डीएमके नेताओं ने यह भी आरोप लगाया है कि तमिलनाडु के केंद्रीय विद्यालयों में तमिल भाषा की पढ़ाई या शिक्षक नियुक्ति को नामांकन की संख्या के बहाने से नजरअंदाज किया जाता है। इससे राज्य में यह आशंका और गहराई है कि स्थानीय भाषाओं को हाशिए पर डाला जा रहा है, और हिंदी को धीरे-धीरे प्राथमिकता दी जा रही है।
भाजपा की सफाई और तर्क
केंद्र सरकार और भाजपा का कहना है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति का उद्देश्य किसी भी भाषा को थोपना नहीं है, बल्कि भारत की भाषाई विविधता को स्वीकार करते हुए छात्रों को मातृभाषा, राज्य की भाषा और एक अतिरिक्त भाषा सीखने का अवसर देना है। अमित शाह कई बार कह चुके हैं कि “हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का मतलब अन्य भाषाओं को कमतर मानना नहीं है।”
हालांकि, व्यवहारिक धरातल पर कैसे इन नीतियों को लागू किया जाता है, इस पर राज्यों के बीच मतभेद बने हुए हैं।
सामाजिक न्याय का मुद्दा: अंग्रेज़ी क्यों ज़रूरी है?
डीएमके और अन्य समान विचारधारा वाली पार्टियों के लिए यह सिर्फ भाषाई बहस नहीं है। भाषा को वे सामाजिक न्याय और अवसर की कुंजी मानते हैं। उनका तर्क है कि अंग्रेज़ी शिक्षा ने दलितों, पिछड़ों और वंचितों को सशक्त बनाया है। यह उन्हें उस अभिजात्य घेरे में प्रवेश करने का माध्यम देता है, जहां पहले केवल कुछ जातियों और वर्गों का प्रभुत्व था।
अंबिल महेश ने कहा:
“तमिल पहचान की भाषा है, अंग्रेज़ी अवसर की। यही दोहरी नीति हमें सबको साथ लेकर चलने में मदद करती है।”
भविष्य की राह: समाधान या और विवाद?
भाषा का मुद्दा भारत में केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि राजनीति, संस्कृति और सामाजिक संरचना का मूल तत्व बन चुका है। अमित शाह की टिप्पणी से यह स्पष्ट है कि भाजपा सरकार भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए दृढ़ संकल्पित है, लेकिन इसे लागू करने के तरीके से गैर-हिंदी भाषी राज्यों में असंतोष और अविश्वास बढ़ रहा है।
यदि केंद्र सरकार वास्तव में भारत की भाषाई विविधता को सम्मान देना चाहती है, तो उसे राज्यों की संवेदनशीलताओं और ऐतिहासिक संघर्षों को ध्यान में रखते हुए काम करना होगा। वहीं, डीएमके जैसे दलों को भी भाषा के नाम पर सकारात्मक बहस को बढ़ावा देना होगा न कि केवल राजनीतिक स्कोरिंग तक सीमित रहना चाहिए।
निष्कर्ष: अंग्रेज़ी बनाम भारतीय भाषाएं नहीं, समान अवसर बनाम नियंत्रण की लड़ाई
इस विवाद की जड़ भाषा नहीं, बल्कि शिक्षा और अवसरों तक समान पहुंच का सवाल है। जब तक भारत में हर नागरिक को बिना भाषाई बाधा के समान शिक्षा, रोज़गार और पहचान का अधिकार नहीं मिलेगा, तब तक यह बहस चलती रहेगी।
और जैसा डीएमके कहती है – तमिल पहचान के लिए, अंग्रेज़ी अवसर के लिए है।
अब देखना यह है कि क्या केंद्र इस संतुलन को स्वीकार करता है, या भाषा की बहस और गहराएगी।
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