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कश्मीर के शहीद दिवस पर प्रतिबंध और राजनीतिक तनाव: 13 जुलाई 1931 की यादों के बीच वर्तमान की जद्दोजहद

Ban and political tension on Kashmir's Martyrs' Day: Struggle between memories of 13 July 1931 and the present

परिचय

जम्मू और कश्मीर का इतिहास, उसकी राजनीतिक सामाजिक गुत्थियां और संघर्ष की कहानियां सदियों पुरानी हैं। इस क्षेत्र का विशेष महत्व न केवल भारत के लिए, बल्कि दक्षिण एशिया की राजनीति में भी बेहद संवेदनशील विषय रहा है। इसी बीच, कश्मीर के शहीद दिवस यानी 13 जुलाई 1931 को लेकर हर साल यहां व्यापक रूप से यादगार कार्यक्रम होते रहे हैं। यह दिन उस ऐतिहासिक घटना का प्रतीक है जब जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह के शासन के खिलाफ मुसलमानों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाई थी और उस संघर्ष में कई शहीद हुए थे।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इस दिन को लेकर प्रशासन और केंद्र सरकार की नीतियों में बड़े बदलाव हुए हैं। 2019 में राज्य के विशेष दर्जे को समाप्त कर इसे दो संघ शासित प्रदेशों में विभाजित करने के बाद से प्रशासन ने इस दिन के सार्वजनिक आयोजन पर रोक लगा दी है। इस साल भी जम्मू-कश्मीर सरकार के कई मंत्री, विधायक और राजनीतिक नेता घर में नजरबंद या हिरासत में लिए गए ताकि वे शहीद दिवस को मनाने वाले कार्यक्रमों में शामिल न हो सकें।

यह स्थिति न केवल राजनीतिक दलों के बीच विवाद का कारण बनी है, बल्कि जम्मू-कश्मीर की जनता के बीच भी तीव्र प्रतिक्रिया और भावनात्मक तनाव को जन्म दे रही है।


1. 13 जुलाई 1931 का ऐतिहासिक महत्व

13 जुलाई का दिन कश्मीर के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। 1931 में इस दिन एक बड़ी घटना हुई थी जिसने जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक दिशा को बदल दिया। उस समय कश्मीर डोगरा महाराजा हरि सिंह के अधीन था, जो ब्रिटिश भारत की राजशाही संरचना के अधीन था। उस समय यहाँ के मुसलमान समुदाय को राजनीतिक और सामाजिक रूप से गंभीर उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा था।

अब्दुल कादिर नामक नेता ने लोगों को जागरूक किया और हरि सिंह के खिलाफ विद्रोह की अपील की। वह ‘देशद्रोह’ के आरोप में जेल में था। 13 जुलाई को जब लोग उसके समर्थन में विरोध प्रदर्शन करने गए, तो महाराजा के सैनिकों ने उन पर गोली चला दी। इस गोलीबारी में 22 लोग शहीद हो गए। यह घटना उस समय एक बहुत बड़ा मोड़ साबित हुई।

यह हत्या मात्र एक हिंसक घटना नहीं थी, बल्कि जम्मू-कश्मीर में एक लोकतांत्रिक आंदोलन की शुरुआत थी। इस घटना के बाद बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए और डोगरा शासन और ब्रिटिश सरकार को मुस्लिम समुदाय की शिकायतों को गंभीरता से लेना पड़ा। कुछ सालों बाद यहां विधानसभा चुनाव भी हुए, जिसने राजनीतिक प्रतिनिधित्व की नींव रखी।


2. 13 जुलाई की यादों की राजनीति: बीते दौर से अब तक

13 जुलाई के शहीद दिवस को जम्मू-कश्मीर में परंपरागत रूप से बड़े स्तर पर मनाया जाता था। यहां पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी शहीदों के समाधि स्थल (Martyrs’ Graveyard) पर पुष्प अर्पित करते थे, सम्मान सभा आयोजित की जाती थी और राजनीतिक दलों द्वारा सार्वजनिक बैठकों का आयोजन होता था।

लेकिन 2019 में जब जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्याधिकार समाप्त कर दिया गया और इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया गया, तब से प्रशासन ने इस दिन के सार्वजनिक आयोजन पर रोक लगानी शुरू कर दी। 2020 से 13 जुलाई और 5 दिसंबर (पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला की जयंती) को आधिकारिक छुट्टियां खत्म कर दी गईं।

इसके बजाय अब राज्य में महाराजा हरि सिंह की जयंती को सार्वजनिक अवकाश घोषित किया गया है, जो इस बदलाव की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। इस बदलाव ने कश्मीर की राजनीतिक और सामाजिक भावनाओं में व्यापक असंतोष और आक्रोश पैदा किया है।


3. 2023 में घटनाक्रम: नेताओं की नजरबंदी और प्रदर्शन पर रोक

इस साल भी 13 जुलाई के मौके पर जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने सुरक्षा और शांति बनाए रखने के नाम पर कड़े कदम उठाए। राज्य के कई वरिष्ठ नेताओं, मंत्रियों और विपक्षी दलों के नेताओं को उनके घरों में नजरबंद कर दिया गया। इसका मकसद था कि वे शहीद दिवस के समारोहों और श्रद्धांजलि कार्यक्रमों में हिस्सा न ले सकें।

प्रदेश के मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस कदम की तीव्र निंदा की। उन्होंने इसे शहीद दिवस के महत्व को कमतर आंकने की कोशिश बताया और कहा कि 13 जुलाई का दिन कश्मीर के लिए जालियावालाबाग जैसा है, जहां ब्रिटिश सरकार ने निर्दोष लोगों को मारा था। उन्होंने कहा कि वे अपने शहीदों की कुर्बानी को कभी नहीं भूलेंगे, भले ही प्रशासन उनकी याद में जुटने से रोक क्यों न दे।

पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने भी इस निर्णय की आलोचना की। उन्होंने कहा कि जब तक केंद्र सरकार कश्मीर के शहीदों को अपनी विरासत नहीं मानती, तब तक वह ‘दिल की दूरी’ को खत्म नहीं कर सकती। उन्होंने कहा कि शहीदों की यादें सिर्फ कश्मीर की नहीं, बल्कि पूरे भारत की विरासत हैं।

जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के प्रमुख साजिद लोने ने भी अपनी नजरबंदी की बात सार्वजनिक की और कहा कि सरकार कश्मीर की पवित्र इतिहास को बदलना चाहती है। उन्होंने कहा, “खून से लिखी गई हमारी कहानियां मिटाई नहीं जा सकतीं।”


4. प्रशासन की दलीलें और प्रतिबंध की वजह

जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए इन प्रतिबंधों को जरूरी बताया है। उन्होंने कहा है कि शहीद दिवस पर बड़ी संख्या में लोग एकत्रित होकर प्रदर्शन कर सकते हैं, जिससे अशांति और हिंसा फैलने का खतरा रहता है। इसलिए प्रशासन ने कार्यक्रमों पर रोक लगाई है और नेताओं को नजरबंद किया गया है।

लक्ष्य यह बताया गया है कि राज्य में शांति बनी रहे और कोई अप्रिय घटना न हो। प्रशासन ने सार्वजनिक क्षेत्र में शहीदों के सम्मान के लिए किसी भी प्रकार के आयोजन की अनुमति नहीं दी।


5. राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया और संवेदनाएं

राष्ट्रीय कांफ्रेंस जैसे प्रमुख राजनीतिक दलों ने प्रशासन की इस नीति का विरोध किया है। उन्होंने Lieutenant Governor को पत्र लिखकर 13 जुलाई को सार्वजनिक अवकाश पुनः बहाल करने की मांग की, लेकिन प्रशासन ने इसे ठुकरा दिया।

इस तरह की राजनीतिक विरोधाभास ने जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक स्थिरता को और चुनौतीपूर्ण बना दिया है। कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व और केंद्र सरकार के बीच गहरी खाई दिख रही है, जो स्थानीय जनता की भावनाओं को भी प्रभावित कर रही है।


6. जम्मू-कश्मीर में सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव

13 जुलाई का शहीद दिवस न केवल राजनीतिक महत्व रखता है, बल्कि यह कश्मीर की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान का भी हिस्सा है। यह दिन स्थानीय लोगों के लिए उनके संघर्ष, दर्द और वीरता की याद दिलाता है।

प्रतिबंधों और नजरबंदी के चलते जनता में निराशा और गुस्सा बढ़ा है। कई लोग इसे अपनी भावनाओं का दमन मानते हैं। इससे न केवल स्थानीय लोगों की राजनीतिक भागीदारी पर असर पड़ा है, बल्कि सामाजिक गतिरोध भी बढ़ा है।

युवा वर्ग में यह भावना फैली है कि उनकी आवाज़ को दबाया जा रहा है, जबकि बुजुर्ग वर्ग इस दिन की पवित्रता बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है।


7. व्यापक राजनीतिक और राष्ट्रीय संदर्भ

कश्मीर की राजनीतिक स्थिति भारत की संघीय संरचना, राष्ट्रीय सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय नीति का भी हिस्सा है। 2019 में विशेष दर्जा समाप्त करने के बाद से कश्मीर में राजनीतिक नियंत्रण केंद्र सरकार के हाथों में ज्यादा सशक्त हुआ है। इससे स्थानीय राजनीतिक दलों की भूमिका और जनता की राजनीतिक स्वतंत्रता सीमित हुई है।

13 जुलाई के घटनाक्रम पर लगाई गई पाबंदियां इस बात का संकेत हैं कि केंद्र सरकार कश्मीर की राजनीति को नए सिरे से आकार देने की कोशिश कर रही है। यह कदम कश्मीर में एकात्मकता और राष्ट्रीय एकता के नाम पर उठाया गया है, लेकिन इसके परिणामस्वरूप स्थानीय विरोध और असंतोष बढ़ा है।


8. आगे का रास्ता: समाधान और समझौता की गुंजाइश

कश्मीर की समस्या कोई सरल मुद्दा नहीं है। यह ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक जटिलताओं से भरा हुआ है। 13 जुलाई की घटना और उससे जुड़ी स्मृतियों को लेकर चल रही राजनीति से यही स्पष्ट होता है कि बिना संवाद और समझौते के स्थायी समाधान संभव नहीं।

जरूरी है कि केंद्र सरकार, स्थानीय प्रशासन और जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक दल एक-दूसरे के विचारों का सम्मान करें और जनता की भावनाओं को समझें। शहीद दिवस जैसे संवेदनशील विषयों पर सामूहिक सहमति बनाकर, स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

साथ ही, जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को मजबूत बनाना होगा ताकि जनता को अपने नेताओं के माध्यम से आवाज़ मिल सके और उनके अधिकार सुरक्षित हों।


निष्कर्ष

13 जुलाई 1931 की घटना कश्मीर के इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ गई है। यह दिन न केवल कश्मीर की राजनीतिक जागरूकता का प्रतीक है, बल्कि एक ऐसे संघर्ष का प्रमाण भी है जो लोकतंत्र, समानता

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