2025 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले देश की शीर्ष अदालत – सुप्रीम कोर्ट – में चल रही एक याचिका ने देशभर में राजनीतिक हलचल मचा दी है। मुद्दा है ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन’ यानी विशेष गहन पुनरीक्षण का, जिसे चुनाव आयोग (EC) ने बिहार में लागू किया है। लेकिन अब इस प्रक्रिया की वैधता, समय और उद्देश्य पर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं।
क्या है यह ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन’?
भारत के निर्वाचन आयोग के पास मतदाता सूची को समय-समय पर अपडेट करने का कानूनी अधिकार है। इसके दो सामान्य तरीके हैं –
- सारांश पुनरीक्षण (Summary Revision)
- गहन पुनरीक्षण (Intensive Revision)
लेकिन इस बार आयोग ने एक नया शब्द इस्तेमाल किया – ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन’। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सीधा सवाल किया:
“रिप्रेज़ेंटेशन ऑफ पीपल्स एक्ट में इसका ज़िक्र कहां है? या तो सारांश होता है या गहन, ये ‘विशेष गहन’ कौन सी श्रेणी है?”
कोर्ट ने EC से पूछा कि वो यह स्पष्ट करें कि किस कानूनी प्रावधान के तहत यह विशेष पुनरीक्षण किया जा रहा है।
समस्या सिर्फ प्रक्रिया नहीं, उसका समय है
सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा कि उन्हें खुद मतदाता सूची के शुद्धिकरण से कोई आपत्ति नहीं है, बल्कि दिक्कत इस प्रक्रिया के समय से है।
जस्टिस सुधांशु धूलिया ने कहा:
“समस्या प्रक्रिया से नहीं है, बल्कि उसके समय से है। हमें संदेह है कि इतनी बड़ी आबादी (लगभग 8 करोड़) को समय रहते शामिल किया जा सकेगा, वो भी चुनाव से पहले।”
मतलब अगर कोई व्यक्ति गलत तरीके से वोटर लिस्ट से हटाया जाता है, तो उसे अपना पक्ष रखने और पुनः शामिल होने का मौका भी नहीं मिलेगा, क्योंकि चुनाव बहुत नज़दीक हैं।
जस्टिस जॉयमाला बागची ने भी कहा:
“इस प्रक्रिया में कुछ भी गलत नहीं है ताकि गैर-नागरिक वोटर लिस्ट में ना रहें, लेकिन इस प्रक्रिया को चुनाव से अलग रखा जाना चाहिए।”
सरकार ने क्यों की यह पहल?
EC के वकील ने कोर्ट में दलील दी कि करीब 1.1 करोड़ लोगों की मृत्यु हो चुकी है और 70 लाख लोग दूसरे राज्यों में माइग्रेट कर गए हैं, ऐसे में लिस्ट को अपडेट करना ज़रूरी है।
लेकिन यह तर्क विपक्षी दलों को रास नहीं आ रहा।
वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर, जो याचिकाकर्ताओं में से एक की ओर से पेश हुईं, ने कहा:
“यह कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं है। यह खासतौर पर गरीबों, प्रवासी मज़दूरों और वंचित वर्गों को बाहर करने के लिए डिज़ाइन की गई है।”
आधार कार्ड पर क्यों हुआ विवाद?
इस पूरी प्रक्रिया में सबसे चौंकाने वाला पहलू यह है कि आधार कार्ड, राशन कार्ड, और यहां तक कि चुनाव आयोग द्वारा जारी किया गया खुद का पहचान पत्र (EPIC) भी मतदाता पुनः सत्यापन के लिए वैध दस्तावेज़ों की सूची में नहीं हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने हैरानी जताते हुए पूछा:
“जब यह पूरा मामला पहचान (identity) से जुड़ा है, तो आधार को स्वीकार क्यों नहीं किया जा रहा? आधार को तो सरकार खुद भी विभिन्न योजनाओं और पहचान के लिए इस्तेमाल करती है।”
इस पर EC की ओर से जवाब मिला कि:
“आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं है। कुछ विदेशी नागरिकों को भी आधार जारी किया जा सकता है। इसलिए यह दस्तावेज़ इस प्रक्रिया के लिए उपयुक्त नहीं है।”
कोर्ट ने इस पर सवाल उठाया कि फिर यदि जाति प्रमाणपत्र आधार पर आधारित होता है, तो वो वैध कैसे हो सकता है? यह तर्क बेमेल प्रतीत होता है।
राजनीतिक भूचाल: विपक्ष ने बताया साज़िश
राजनीतिक दलों ने इस प्रक्रिया पर तीखा हमला बोला है, खासकर राजद (RJD) और कांग्रेस, जो वर्तमान में महागठबंधन (Mahagathbandhan) का हिस्सा हैं।
तेजस्वी यादव ने NDTV को दिए इंटरव्यू में इसे “चुनाव से पहले मतदाताओं को हटाने की साज़िश” बताया।
उनका दावा है कि:
- कमज़ोर वर्ग,
- प्रवासी मज़दूर,
- दलित-पिछड़ा समुदाय,
- शहरी झुग्गी बस्तियों में रहने वाले,
को टारगेट किया जा रहा है ताकि उनकी संख्या कम कर बीजेपी को लाभ पहुंचाया जा सके।
सुप्रीम कोर्ट के तीन बड़े सवाल
अब अदालत ने EC से तीन बिंदुओं पर जवाब मांगा है:
- आप किस कानूनी प्रावधान के तहत यह प्रक्रिया कर रहे हैं?
- Representation of Peoples Act में ‘Special Intensive Revision’ जैसी कोई चीज़ नहीं है।
- यह पुनरीक्षण प्रक्रिया कितनी वैध और निष्पक्ष है?
- विशेषकर तब जब इसमें आधार जैसे सामान्य पहचान पत्र को स्वीकार नहीं किया गया।
- चुनाव से पहले ही यह प्रक्रिया क्यों शुरू की गई है?
- क्या इसका उद्देश्य चुनावी समीकरण को प्रभावित करना है?
इन तीनों सवालों के जवाब EC को 28 जुलाई तक देने हैं।
क्या हो सकता है अगला कदम?
यदि सुप्रीम कोर्ट यह पाता है कि यह पुनरीक्षण प्रक्रिया किसी विशेष जनसमूह को जानबूझकर बाहर करने की मंशा से की जा रही है, तो वह:
- प्रक्रिया को रोक सकता है,
- EC को फटकार सकता है,
- या एक नई निष्पक्ष प्रक्रिया लागू करने का आदेश दे सकता है।
क्या इससे लोकतंत्र को खतरा है?
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में मतदाता सूची की शुद्धता ज़रूरी है। ग़ैर-नागरिकों को हटाना आवश्यक है, लेकिन इस प्रक्रिया को अगर चुनाव से ठीक पहले और बिना पारदर्शी और समावेशी मापदंडों के किया जाए, तो यह लोकतंत्र के मूल अधिकार – “वोट का अधिकार” – को कमजोर कर सकता है।
सवाल उठता है –
क्या यह प्रक्रिया सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देती है,
या यह कुछ वर्गों को हाशिये पर धकेलती है?
निष्कर्ष: पहचान का मुद्दा या राजनीतिक चाल?
बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण का मुद्दा केवल तकनीकी या प्रशासनिक नहीं रहा, अब यह संविधानिक अधिकार और राजनीतिक रणनीति का विषय बन चुका है।
सुप्रीम कोर्ट की अगली सुनवाई में सिर्फ EC की कार्यप्रणाली नहीं, बल्कि भारत के लोकतंत्र की पारदर्शिता, न्याय और सबको समान अवसर देने की प्रतिबद्धता की भी परीक्षा होगी।
यदि कोर्ट ने आयोग को फटकार लगाई और प्रक्रिया पर रोक लगाई, तो यह एक ऐतिहासिक उदाहरण बन सकता है कि चुनाव आयोग भी जवाबदेह है। और यदि आयोग अपने निर्णयों को सही साबित कर पाया, तो यह दिखाएगा कि भारत में संस्थान स्वतंत्र और सक्षम हैं।
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