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संसद के मानसून सत्र में जज यशवंत वर्मा पर महाभियोग प्रस्ताव संभव: क्या होगा अगला कदम?

Impeachment motion against Judge Yashwant Verma possible in Monsoon Session of Parliament: What will be the next step?

देश की न्यायपालिका एक बार फिर राजनीतिक और नैतिक बहस के केंद्र में है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश यशवंत वर्मा पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के चलते केंद्र सरकार द्वारा उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाए जाने की तैयारी की जा रही है। सूत्रों के अनुसार, संसद के आगामी मानसून सत्र में यह प्रस्ताव पेश किया जा सकता है। इस मुद्दे ने न्यायपालिका की पारदर्शिता, जवाबदेही और न्यायिक नैतिकता को लेकर व्यापक चर्चा को जन्म दे दिया है।


मामला क्या है?

यह पूरा मामला तब सामने आया जब दिल्ली में स्थित जस्टिस यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास से बड़ी मात्रा में बेहिसाब नकदी बरामद की गई। हालाँकि अभी तक इस मामले में कोई FIR दर्ज नहीं की गई है, लेकिन संसद में इस मुद्दे को लेकर विरोधी दलों से लेकर सत्ता पक्ष तक के सांसदों ने गंभीर चिंता जताई है।

सूत्रों के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट की एक आंतरिक तथ्य-जांच समिति (fact-finding committee) ने भी इस मामले की जांच की है और जस्टिस वर्मा को हटाने की प्रक्रिया पर गंभीरता से विचार करने की सिफारिश की है।


महाभियोग प्रक्रिया क्या होती है?

भारत के संविधान के अनुच्छेद 124(4) के तहत किसी उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को उनके आचरण में दोष पाए जाने या कार्यदक्षता में अक्षमता के आधार पर महाभियोग द्वारा पद से हटाया जा सकता है।

महाभियोग लाने की प्रक्रिया इस प्रकार है:

  1. लोकसभा में कम-से-कम 100 सांसदों या राज्यसभा में 50 सांसदों के हस्ताक्षर से प्रस्ताव पेश किया जाता है।
  2. इसके बाद, लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा सभापति एक तीन-सदस्यीय जांच समिति का गठन करते हैं, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश, एक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, और एक प्रतिष्ठित न्यायविद शामिल होता है।
  3. यदि समिति आरोपों की पुष्टि करती है, तो दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित होना अनिवार्य होता है।
  4. इसके बाद राष्ट्रपति द्वारा जज को पद से हटाने का आदेश जारी किया जाता है।

सरकार की रणनीति

सूत्रों के अनुसार, केंद्र सरकार ने विपक्षी दलों के साथ इस मुद्दे पर सहमति बनाने की कोशिश शुरू कर दी है। सरकार को यह भरोसा है कि उसे महाभियोग प्रस्ताव लाने और पास कराने के लिए पर्याप्त समर्थन मिल जाएगा।

लोकसभा में प्रस्ताव लाने के लिए जरूरी 100 सांसदों के हस्ताक्षर जुटाने की प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है। वहीं, राज्यसभा में भी बहुमत के लिए जरूरी पार्टियों को साथ लेने के प्रयास किए जा रहे हैं।


विपक्ष का रुख

चौंकाने वाली बात यह है कि इस बार कई विपक्षी दल भी सरकार के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। इसका कारण यह है कि मामला भ्रष्टाचार से जुड़ा है, और न्यायपालिका की साख को लेकर सभी दलों की समान चिंता है। संसद के भीतर कई सांसदों ने इस पर आवाज़ उठाई है, विशेष रूप से यह सवाल करते हुए कि—

  • इतनी बड़ी मात्रा में नकदी आखिर जज के आवास पर कैसे मिली?
  • जब मामला सामने आ गया है, तो अब तक FIR दर्ज क्यों नहीं हुई?
  • सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार इस मामले में पारदर्शिता क्यों नहीं अपना रहे?

जस्टिस यशवंत वर्मा का पक्ष

जस्टिस वर्मा ने सभी आरोपों को खारिज करते हुए कहा है कि नकदी उनसे संबंधित नहीं है। उनका दावा है कि उन्हें बदनाम करने की साजिश रची जा रही है, और वह किसी भी जांच में सहयोग देने के लिए तैयार हैं। उन्होंने अपने स्थानांतरण को भी राजनीतिक साजिश करार दिया।

गौरतलब है कि नकदी बरामदगी के बाद उन्हें दिल्ली हाईकोर्ट से स्थानांतरित करके इलाहाबाद हाईकोर्ट भेज दिया गया था।


न्यायपालिका की आत्म-शुद्धि पर सवाल

यह मामला केवल एक व्यक्ति के आचरण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सवाल खड़ा करता है कि—

  • क्या न्यायपालिका अपने आंतरिक तंत्र से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सक्षम है?
  • सुप्रीम कोर्ट की तथ्य-जांच समिति की सिफारिश के बावजूद कोई सार्वजनिक कार्रवाई क्यों नहीं हुई?
  • क्या कार्यपालिका को न्यायपालिका के मामलों में हस्तक्षेप करने देना चाहिए, या यह न्यायिक स्वतंत्रता के खिलाफ है?

इससे पहले भी न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग लाने की कोशिश हुई है, लेकिन राजनीतिक सहमति और सबूतों की कमी के कारण वे कभी पास नहीं हो सके। इस बार, मामला गंभीर रूप से सार्वजनिक मंच पर है।


ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

भारत में अब तक कोई भी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश महाभियोग द्वारा पद से नहीं हटाया गया है।
हालाँकि दो बड़े मामले सामने आए:

  1. जस्टिस वी. रामास्वामी (1993): पहला महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा में पेश हुआ था लेकिन पास नहीं हुआ।
  2. जस्टिस सौमित्र सेन (2011): राज्यसभा में प्रस्ताव पास हुआ, लेकिन उन्होंने पहले ही इस्तीफा दे दिया।

इसलिए यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या जस्टिस वर्मा का मामला भारत की न्यायिक इतिहास में नया अध्याय लिखेगा।


निष्कर्ष

जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ प्रस्तावित महाभियोग न केवल एक न्यायाधीश के आचरण पर सवाल उठाता है, बल्कि इससे न्यायपालिका की जवाबदेही, कार्यपालिका के हस्तक्षेप, और राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी परीक्षा होगी। अगर प्रस्ताव संसद में पास होता है, तो यह भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक परिपक्वता का प्रतीक होगा। वहीं, अगर यह प्रस्ताव राजनीतिक वजहों से विफल रहता है, तो यह देश की न्याय प्रणाली की पारदर्शिता और आत्म-नियंत्रण क्षमता पर गहरे सवाल खड़े करेगा।

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